ग़ज़ल
जर्द पत्ते थे हमें और क्या कर जाना था
तेज आंधी थी मुक़ाबिल सो बिखर जाना था।
वो भी जब तरके-ताल्लुक पे पशेमान न था
तुमको भी चाहिए यह था कि मुकर जाना था।
क्यूँ भला कच्चे मकानों का तुम्हें आया ख्याल
तुम तो दरिया थे तुम्हे तेज गुजर जाना था।
हम कि हैं क़ाफला सालारों के मारे हुए लोग
आज भी यह नहीं मालूम किधर जाना था।
इश्क में सोच समझकर नहीं चलते साँई
जिस तरफ उसने बुलाया था उधर जाना था।
क्या खबर थी कि यहाँ मेरी जरूरत होगी
हमने तो बस दर-ओ-दीवार को घर जाना था।
ऐसी हसरत थी सफर की कि 'जिया' मंजिल को
हमनें मंजिल नही जाना था, सफर जाना था।
-ज़िया ज़मीर,
जेड बुक डिपो, चौकी हसन खाँ
मुरादाबाद (उ0प्र0)
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